Sunday, August 10, 2008

बरसे बून्दियाँ सावन की...सावन की मन-भावन की !!


आज २ अगस्त है, शक १९३० श्रावण शुक्ल पक्ष की १ तारीख! आज से श्रावण मासारंभ होता है मैं जब इंदौर में थी,आज से तक़रीबन २६ साल पहले..गांधी हॉल जो वहाँ का टाऊन हॉल था, वहाँ बड़े बड़े आमों और जामुनों के पेडों पर बड़े बड़े झूले पड़ते थे..हम लोग पापा से कह कर ख़ास तौर पे वहाँ झुला झूलने जाते थे! हमारी अपनी कॉलोनी में कम से कम ८-१० झूले डलते थे जिन पर झूलने के लिए हमें बहुत देर तक रुकना पड़ता था...लेकिन जो आनंद उन झूलों पर झूलने में था...वैसा अब तक किसी खेल में नहीं मिला...हर रविवार रात को बिल्डिंग में रहने वाली मारवाडी भाभी मुझे मेहंदी लगाती थी...सावन का आना लड़कियों के जीवन में एक अजीब सी कसमसाहट...खुबसूरत सपने और जीवन के प्रति उमंग भरता था...लेकिन, इतने सालों ने...इन खुबसूरत रस्मों को समाप्त कर दिया है...नयी दिल्ली से प्रकाशित 'प्रभा साक्षी' का २००६ का एक आलेख आपको भी पढ़वाना चाहूँगी:"आम की डाली पे रस्सी और रस्सी के सहारे आसमान छू लेने की कोशिश, झूलों पर सवार पींगे भरती सखि सहेलियां और सावन के मस्ती भरे गीतों के स्वर, अमराइयों में नवयौवनाओं की खिलखिलाहट न जाने ये दृश्य अब लोक जीवन से कहाँ गुम हो गए हैंन अब अमराइयों में झूले हिंडोले दिखाई पड़ते हैं और न युवतियों का जमघट नज़र आता हैअब तो न केवल शहर वरन ग्रामीण अंचलों में भी ये दृश्य बहुत ही कम मिलता है..आधुनिक जीवन शैली ने ग्रामीण जीवन को भी लील लिया लगता है..आधुनिक सुख सुविधा.. मुख्यतया टेलिविज़न आदि के कारण मनोरंजन के लिए भी कोई झुला झूलने नहीं जाता और इसी वजह से झूले भी ना के बराबर ही बांधे जाते हैं..."भारतीय परिवारों में, ब्याही बिटिया का घर आना बहुत बड़ी बात मानते हैं और अक्सर बेटियाँ सावन में ही अपने पीहर ज्यादा आती हैं...तीज, रक्षा बंधन...अनेकोनेक त्यौहार इसी दौरान आते हैं...और मायके से ज्यादा मौज और कहीं हो ही नहीं सकती...सुन्दर कपडे पहनना,गहनों में सजना,झूला झूलना, मेहंदी लगाना...पकवान बनाना और खिलाना...हर भारतीय लड़की के भीतर ये वो हिस्सा है जो हमेशा सांस लेता है....चाहे वो ६० साल कि हो जाए...चाहे वो किसी बड़ी कंपनी की मालकिन बन जाए या फिर मायके आयी बेटियों कि सरबराई करने वाली माँ! शायद वो सावन फिर आये...जब आमों पे झूले पड़े..तब तलक...आइये...स्त्रियों के जीवन में खुशियों के...ममता के...प्रेम के...सद्भावना के...उमंग के झूले यूँही पींगे भरते रहे....इसी कामना के साथ...ये सावन आप सभी को खूब मंगलमय हो!

Thursday, May 8, 2008

कर देना तुम तर्पण मेरा नाम लेकर!

कभी जब आराम से जीवन के सफ्फाक उजियाले में बैठोगे.....

कभी जो गुजरोगे उस राह, जहाँ मंदिर में संध्या हो रही हो

कभी उस उत्ताल तरंग के मुंह से हौले से सुनो तुम नाम मेरा...

कभी जब शिखरों पे तुम्हे याद आ जाये क्षण कुछ बीते किसी नन्ही तलहटी में...

तब,उस पल,उस दिन,उस क्षण,कर देना तुम तर्पण मेरा नाम लेकर!!

कि,

तब तलक रहेंगी साथ में तुम्हारे,दुआएं मेरी...

आमीन!

४-५ मे कि मध्य-रात्री!

Sunday, April 20, 2008

प्रेम-उजियाला !!


विछोह-कल्पना


कल्पना असहनीय


सहना कठिन


कठिनता जटिल


जटिलता सामाजिक


सामाजिक बंधन


बंधे हुए हम-तुम


हम-तुम साथी


साथी सहारे


सहारे ढूंढते


ढूंढते प्यार


प्यार आत्मिक


आत्मा है निर्मल


निर्मल नाते


नाते अर्धसाकार


अर्धसाकार स्वप्न


स्वप्न मोहक


मोहित धारित्री


धारित्री वरुण की


वरुण घनघोर


घनघोर छाया अँधेरा


अंधियारी राहें


राह-मानवता-पवित्रता-प्रेम


प्रेम-उजियाला सर्वोपरि


सर्वोपरि प्रेम-उजियाला!

किसी दौर वो संग चला था..

अक्सर गिर जाता है पत्ता राह गुजर पे

शाखों से फिर कहाँ वास्ता रख पाता है?

गमों को वो किस कदर छुपाता होगा

दोस्त , जो किसी राह पे मुड़ जाता है?

किसी दौर वो संग चला था मेरे कभी,

सोच के ये कहाँ ,हमनवा बन पाता है?

मेरा माज़ी भी कम्बख़्त, खुदा-सा,

मुझे आज भी जीना सीखा जाता है!

~स्वाति~२० एप्रिल २००८

सुनहले रंग सजाती हूँ!

जिंदगी ने कई रंग दिखाए, फिर भी,
अब नया रंग ढूँढती हूँ
अपने आकाश पे इन दिनों
सुनहले रंग सजाती हूँ!

जीने की चाह तो मुझमे भी है,फिर भी,
सिर्फ़ तेरी चाहत का दम भरती हूँ
ख्वाब मे ही मिल जाया कर
ये ही दुआ करती हूँ!

जिंदगी से कोई शिकायत नही, फिर भी,
खुशियों के बहाने ढूँढती हूँ,
रोज़ सुबह बेटियों को देखकर,
जीने का सामान करती हूँ!!
~~स्वाति ~~१७ अप्रिल,२००८ ~ १.१४ मध्य रात्रि

और तुम आओ!! (कुछ हल्का-फुल्का....)

ऐसा नहीं हो सकता क्या, कि,
दिन के उजालों में, शहर सारा सोता हो,
और तुम आओ!

किसी कुत्ते के बच्चे की पूँछ हिले,
और तुम आओ!

आईसक्रीम का आखिरी स्कूप हो हाथ में
और तुम आओ!

मेरे वो पुराने वाले दिनों की दस्तक हो,
और तुम आओ!

मेरे जन्मदिन का पहला लम्हा हो,
और तुम आओ!

मेरे हाथों में नौ-नौ चूडियाँ हो,
और तुम आओ!

रात अभी आधी हो,
और तुम आओ!

मेरी साँसें मुझसे खफा-खफा हो,
और तुम आओ!

क्या जानू कि क्या कुछ होना हो,
जब तुम आओ!!

तुम्हारे लिये...(तुम जानते हो!!)

तिमिर का सन्नाटा कह रहा था

जो बरसेगा वो बादल कैसा होगा?

मेरे अरमानों में बस गया

एक मासूम सा चेहरा

छू लूँ गर उसे तो

वो उन्माद कैसा होगा?

इक चिडिया ने कल कहा था मुझसे..

ना उदास रहा करो ऐसे,

लो, मेरे पंख ले लो तुम!

अब सोचती हूँ उसके शहर का

आसमान कैसा होगा?

डूबते अँधियारे से अक्सर्,

ध्रूवतारा पूछा करता है हर रोज़,

तेरे आँचल को तलाश है जिसकी

वो उजियारे वाल सूरज़, जाने कैसा होगा?

तिमिर का सन्नाटा कह रहा था

जो बरसेगा इस बरस तो,

वो बादल कैसा होगा?

Wednesday, January 16, 2008

इक सजन है सलोना सा.......


इक सजन है सलोना सा...
दिल को है मेरे भाया जो!
कहता है मुझसे,कुछ कहूँ
दास्ताने-दिल....
सोचती हूँ,रुसवा
ना हो जाये कहीं वो!

हंसता है तो
बारिशों की बूँदों से
हरसिंगार खिल जाते हैं
बतियाँ जैसे--
मिसरी घुली जाती है,सीने में
इक बलम है प्यारा सा वो
इक सजन है सलोना सा वो

होठों से उसके रंग चुरा के
मैं इन आँखों में भर लेती हूँ
हर सुबह,फिर,
ले नूर उन आँखों से,
अपने होठों पे सजा लेती हूँ...
जज्ब है वो मुझमें इस तरह से
इक सजन है शर्मिला सा वो
इक बलम है प्यारा सा वो

दूर वादियों में
जब मंदिर में संध्या होती है
मेरे ह्र्दय में
जैसे बंसी
राग कोई छेडती है
जैसे उसी प्रभु का
अवतार है वो...
इक श्याम है प्यारा सा वो

इक सखा है अलबेला सा वो
इक बलम है न्यारा सा वो
इक सजन है सलोना सा वो