Wednesday, March 26, 2014

वादा और गुड बाय ...

बहुत विचित्र बात है की जिसके लिए ये कवितायेँ (रचना से आगे बढ़कर  !) लिखीं  , उसी ने मुँह  फेर लिया और दुनिया है की उन्हीं रचनाओं  पे वाह वाह किये जाती है .... खैर! 

सिर्फ एक गरज़  से ये मेल कर रही हूँ, कभी किसी को जीवन में छोटा मत आंकियेगा .... पता नहीं किन लोगों की संगत  में हैं आप  इन दिनों? 

आपके लेखों से घमंड और गुरूर की बू आती है .... 

आप शायर दिल हैं, अदब वाले इंसान हैं ...ज़रा इसका भी ध्यान रखियेगा! 

कभी न मिलने के वादे को बरक़रार रखते हुए,

शेष .... कुछ नहीं !!

Monday, March 24, 2014

तोड़ दो ये प्रतिबंध !

“पिछले बीस सालों में जब से तू मुझसे जुदा हुआ है , 

मैंने हर पहाड़ से तुझे पुकारा .. 

नदी की लहरों पे तुझे गाया .. 

ज़मीन पे फूलों की नोक से तेरा नाम उकेरा .. 

चिड़ियों को, तोता – मैना गोरैय्या को तेरी तस्वीर से मिलवाया ... 

खिड़की से लग के जाते सूरज को तेरी छुअन को समझाया 

... रात जब चाँद सेमल के पेड़ पर अटक गया था तो उसे तुम्हारी आँखों का वास्ता दिया ...

पिछले सालों में मैंने सिर्फ़ तुम्हें सुना ... तुम्हें बोला .. तुम्हें कहा ...तुम्हें जिया

अब मैं और चुप नहीं रह सकती ....

सुना दुनिया वालों ,

अब मैं और चुप नहीं रह सकती ....

अब मैं उससे कहने जा रही हूँ ...

हाँ समीर , अब मैं उससे कहने जा रही हूँ ... वो तुम्हें मुझसे मिलवायेगा .... जरुर मिलवायेगा ”

शुभांगी की तस्वीर पर चंदन की माला थी ...

समीर, मोबाईल पर शुभांगी के इस अंतिम एस एम् एस को बार बार पढ़ते हुए बस अनवरत रो रहा था ... 

इस मेसेज का वो मतलब समझ नहीं पाया था ... 

फिर एक बार .. समीर , शुभांगी को समझ नहीं पाया था !


नंदिनी ने अपने पापा को सँभालते हुए कुर्सी पर बिठाया और बोली , 

"पापा , शुभांगी जी की खातिर , आपको चुप नहीं रहना चाहिये ... पापा , अब तो, तोड़ दो .... तोड़ दो ये प्रतिबंध !"


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मेरी आगामी कहानी 'तोड़ दो ये प्रतिबंध!' से !

~स्वाति-मृगी~

Friday, March 21, 2014

दिलफरेब सदमा

गुमान था हमें --
सोचते थे ,
इश्क़ नाम का एक दिल रहता है इसमें !!
पिछली पूनो से
इस अमावस तक 
लेकिन , इससे --
सिर्फ ज़हर ही उगला है मैंने !!

हर बार तेरे जुदाई की,
इक और सिलवट संभाली है इसने --
कि ,
इश्क़ के सदमे सहने को दिल
और
जिस्म के सहने को ---
जिस्म ?

उम्र की मार का
हर निशान जवां होता है ,
ये बुझते चरागों के दौर हैं ,
यहाँ हर
सदमा,
बड़ा दिलफरेब होता है !!

~स्वाति-मृगी~
 —

धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था ....


शाम ढले फिर छा गये थे बादल 
धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था 
मैंने छत पर आकर तब ,
अपने आँसुओं को सूखाया था !

मेरी हँसी से अपनी जेबें भर
उसने इक बाग लगाया था
फूलों में बिंध अपने, तब,
वो मुझसे ही शरमाया था !

ओढ़ कर चादर शरद की
उसने तो अ-लगाव जलाया था ,
मैंने सावन रुतु सा, किन्तु,
जीवन को सजाया था !

शाम ढले फिर छा गये थे बादल
धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था
मैंने छत पर आकर तब ,
अपने आंसूओं  को सूखाया था !

~स्वाति-मृगी ~
(९-१० जुलाई २०१३ की मध्य रात्रि )

अपनी बात

मैं, स्वाति..कहते हैं स्वाति नक्षत्र में जब पानी की बूँदें धरा पर गिरती हैं तो आतुर चातक की प्यास बुझाती हैं..स्वाति नक्षत्र में ही जब पानी की बूँदें सीप में पड़ती हैं तो मोती बनती हैं..
मुझे नहीं मालूम मेरे आई-पप्पा ने इनमे से किस कारणवश मेरा नाम रखा ..लेकिन मेरी कोशिश है की मैं अपने नाम का अर्थ जी सकूँ और लोगों के काम आ सकूँ!

मेरा जन्म माँ नर्मदा के किनारे बसे शहर जबलपुर में 26 नवम्बर 1969 को हुआ था। शुरुआती शिक्षा जबलपुर में ही हुयी लेकिन अधिकाँश शिक्षा इंदौर शहर में हुई । मैंने कभी अपनी और कभी अपने माँ-पापा की ख़ुशी के लिए उपाधियाँ प्राप्त की। जूलॉजी में एम एस सी करने के उपरान्त एम बी ए (मार्केटिंग), तदुपरांत बिज़नेस मेनेजमेंट में पी एच ड़ी की उपाधि प्राप्त की। अनेकों बड़ी प्रबंधन की शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन का कार्य किया, मल्टीनेशनल , रिसर्च आदि बड़ी कंपनियों में भी कार्य किया और इन दिनों पुणे के सिम्बायोसिस यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट स्टडीज़ इंस्टिटयूट में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पढ़ाती हूँ ।
 

पठन - पाठन से हमेशा ही लगाव रहा। माँ-पापा ने बहुत बचपन में रंजित देसाई, ग . दी . माडगुलकर , शिवाजी सामंत के उपन्यास, कविता-विश्व से परिचित करवा दिया था । रंगमंच, अभिनय, वाद-विवाद में बाल्य - काल से ही विशेष आकर्षण रहा और इनमें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार भी जीते । फिर वह वक़्त भी आया जब हिंदी, अंग्रेजी और मराठी के श्रेष्ठ कवि , लेखक एवं साहित्यकारों को पढ़ना शुरू किया और इनकी सोच ने मेरी सोच को भी गढ़ा । मेरे गुरुओं ने, मेरी शाला सेंट रेफ़िअल्स , मेरे महाविद्यालय होलकर साइंस कॉलेज ने भी न केवल मेरे अध्ययन वरन मेरे सर्वांगीण विकास में अपूर्व योगदान दिया। यही समय था जब साहित्य-प्रेम ने गहराई तक अपनी जगह मेरे दिल में बना ली और मैंने इसी पढने - लिखने को जीवन का सलीका और अविभाज्य हिस्सा बना लिया।

 मेरी व्यावसायिक नियुक्तियों ने मुझे वे शहर भी दिखा दिए जो मैंने अपने पिता के सरकारी
तबादलों के वक़्त नहीं देखे थे। इन शहरों में भाँति - भाँति के लोगों से मुलाकात होती रही, उनके
विचारों ने, उनके संग हुए संवाद-चर्चाओं ने मेरी सोच को गढ़ा । महाराष्ट्रियन होने के बावजूद हिंदी
भाषा के प्रति लगाव होने का बड़ा कारण है मेरा इंदौर शहर में लालन-पालन होना । इंदौर शहर की कला, संस्कृति, यहाँ के बाशिंदों की दरियादिली और उदार- उदात्त स्वभाव ने मेरे चेतन 

अवचेतन मन पर जो कुछ छाप ड़ाली , मैं उसी का प्रतिबिम्ब मात्र हूँ। 

माँ-पापा बताते थे की , भेड़ा घाट (जबलपुर के पास संगमरमर के पहाड़ों के बीच से जहाँ नर्मदा 
मइया अपने नवरसों के दर्शन करवाती हैं) के किनारों पर खेलते हुए, अक्सर मैं फिसल कर मैया 
की गोद में चली जाती थी और सौभाग्यवश हर बार मुझे वहाँ खड़े मल्लाह बाहर खींच लाते थे ! 


शायद नर्मदा संग रिश्ता तभी जुड़ गया था। 


नर्मदा को सौन्दर्य की नदी भी कहा गया है उसके चुलबुले, खिलखिलाते , हँसते गाते रूप को रेवा 
नाम से पुकारा जाता है..माँ नर्मदा के इन अनेक रूपों ने मुझे हमेशा ही मोहित किया है। कहीं 
मन में ये हमेशा रहा की नर्मदा के इन रूपों को शब्दों का जामा दिया जाए। अमृतलाल वेगड़ जी ने हिंदी में नर्मदा पर बहुत ही बेहतरीन किताबें लिखी हैं जिनका मेरे मन पर बहुत प्रभाव पड़ा है। जीवन में हम सभी ख़ुशी एवं गम के हिंडोले में झूलते हैं, विषाद-पीड़ा-द्वेष-प्रेम सभी भावों से गुजरते हैं ...कभी उग्र तो कभी बेहद शांत हो जाते हैं! मैंने अपनी कविताओं को नर्मदा के 
अनेकानेक रूपों संग जोड़ते हुए आपके समक्ष इस काव्य-संग्रह में लाने का प्रयास किया है। 



रेवा पार से यह मेरा प्रथम काव्य-संग्रह है। आशा है आप सभी का स्नेहआशिर्वाद ,सहयोग हमेशा 
साथ रहेगा..मेरी गलतियों को मुझे जरुर बताइयेगा और जब वक़्त मिलेपीठ भी थप-थपा दीजियेगा । आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा 

सांवरे संग होरी खेलूँ काहे ?

अब क्या खेलूँ मैं और होरी सांवरे ?
रंग तेरी प्रीत का बरसों से मिटा ही नहीं ...

सिंदूरी सहर

वो सुबह कभी तो आयेगी
मेरे मन के आकाश पर सिंदूरी सहर होगी
हर रंग मुझसे होकर गुजरेगा
हर रंग को भी तो
शायद
मेरी
जरुरत होगी
मुझ तक छूते
कुछ जीवन होंगे या
कुछ रिश्तों के घनेरे जंगल भी होंगे


हर एक उमर झाँकेगी जिसमें से
मेरे बौराये जीवन की
सुनो
सच्ची वो तस्वीर होगी।

~~'रेवा पार से' मेरे कविता संग्रह की एक कविता~~

तनहायी

एक तनहायी शहर की थी,
मेरी,
एक मुझमें भी ,
अक्सर --
जाने क्या कुछ बोला करती थी!

शामो-सहर कमबख्त,
मुझसे,
दोनों मिलकर --
जाने क्या करने को ,
कहा करती थी !

फिर एक रोज,
भीड़ का हिस्सा बन, सोचा,
तन्हायी को आबाद करूँगा,
तनहा लोगों की बातों में आकर
खुद को बहलाऊँगा!

मैंने पाया भीड़ ने, तब
मुझको
सहलाया और दुलराया था
अपने संग पाकर
कुछ जश्न-सा भी मनाया था !


लेकिन तन्हायी का भी
अपना
एक उसूल होता है
भावों संग खेलकर
गूंगा - बहरा हो,
चुप्पा लगा जाता है !

उसूल पसंद तन्हाई ने
आखिर
अपना रंग दिखा दिया,
वो जो शहर था ,मुझमें –
बस गया ...
वो जो मैं था ,
गुम गया !

~स्वाति-मृगी~

९ जुलाई २०१३


(पेंटिंग साभार : बेट्टी पेन्नेल )

Thursday, March 20, 2014

उम्र का अनगढ़ हिस्सा तो नहीं था!

उम्मीद के चश्मे पहन,
किरमिजी धूप के छिलकों में 
परत दर परत
खुलता गया –
बीता, जो,
वो सिर्फ एक साल नहीं था!

उलझी बहसों को
और उलझाता ,
गुज़रा हम पे वो
अमिट सी लिए छाप
अनुभूति का
और एक नया
सिलसिला सिर्फ नहीं था !

बहकाया, तडपाया,
फिर बहकाया --
जिसने !
‘मृगी’ के ह्रदय को
तनहा कर गया ~
फफक कर हँसा और रुला भी गया,
पगला सा कोई ख़्वाब,
और पगला कर गया ,
उम्र का अनगढ़ हिस्सा तो नहीं था!

~स्वाति- मृगी ~
३०/१२/२०१३


(पेंटिंग साभार : क्रिस्सी , यू एस )

~~'दृष्टान्त'~~

वह चक्रव्यूह भी बिखर गया
जिसमें घिरकर अभिमन्यु समझता था खुद को|
आक्रामक सारे चले गये
आक्रमण कहीं से नहीं हुआ
बस मैं ही दुर्निवार तम की चादर-जैसा
अपने निष्क्रिय जीवन के ऊपर फैला हूँ|
बस मैं ही एकाकी इस युद्ध-स्थल के बीच खड़ा हूँ|
यह अभिमन्यु न बन पाने का क्लेश!
यह उससे भी कहीं अधिक क्षत-विक्षत सब परिवेश!!
उस युद्ध-स्थल से भी ज्यादा भयप्रद....रौरव
मेरा ह्रदय प्रदेश!!!
इतिहासों में नहीं लिखा जायेगा|
ओ इस तम में छिपी हुई कौरब सेनाओं !
आओ! हर धोखे से मुझे लील लो,
मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;


नए महाभारत का व्यूह वरूँ मैं|
कुंठित शस्त्र भले हों हाथों में
लेकिन लड़ता हुआ मरूँ मैं|
~~'दृष्टान्त'~~ दुष्यंत कुमार~~

फ़ासले

अदावतों से बदनाम रहे 
हल्की सोचों में पले फ़ासले!

चलना था ज़रूरी, आप ही 
निभते रहे फ़ासले दर फ़ासले!

बीहड़ में भी बस जाते हैं 
झुण्डों में सिमटते फ़ासले!

परे धकेल दुनियादारी, जो बोले 
चिलमन हटाओ, थाम लो फ़ासले!

कभी दबे थे रेत में, आज 
नदी के किनारे हुए फ़ासले!

लो गिरा ही दिए तुमने-मैंने 
बुलंद रहते नहीं अक्सर, फ़ासले!

तेरे हुस्न से, न मेरे क़रार से 
मिटेंगे इश्क़ से, ये फ़ासले!

तेरा तुझसे, मेरा मुझसे भले हो,
रूह के रूह से, होते नहीं हैं फ़ासले !

रूह के रूह से, होते नहीं हैं फ़ासले !

~स्वाति-मृगी ~
२०१४ की होली